भाद्रपद की पावन द्वादशी को माता मूर्ति के मंदिर में विद्यमान होते हैं भगवान नारायण

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भगवान बद्रीविशाल जी के मंदिर से कुछ आगे भगवान नर नारायण की “माता मूर्ति” का मंदिर विद्यमान है। श्रीमद्भागवत के एकादश स्कंध के चतुर्थ अध्याय में भगवान नारायण (विष्णु) के अवतारों का वर्णन है जिसमें नर नारायण को भगवान विष्णु का अंशावतार कहा गया है। सृष्टि के आदि में भगवान ब्रह्मा ने अपने मन से 10 पुत्र उत्पन्न किए। ये मानस पुत्र मरीचि,अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्, पुलह, कृतु, भृगु, वशिष्ठ, दक्ष और नारद हैं। इनके द्वारा ही आगे समस्त सृष्टि उत्पन्न हुई।

इसके अतिरिक्त ब्रह्मा जी के दाएं स्तन से धर्मदेव तथा पृष्ठ भाग से अधर्म पैदा हुए। ब्रह्मा जी के पुत्र दक्ष प्रजापति का विवाह मनु पुत्री प्रसूती से हुआ। प्रसूती से दक्ष प्रजापति की 16 कन्याएं उत्पन्न हुई। इनमें से 13 कन्याओं का विवाह धर्म से तथा एक कन्या का विवाह अग्नि से, एक कन्या का विवाह पितृगण से तथा एक कन्या का विवाह शिवाजी से हुआ। धर्मदेव अपनी सबसे छोटी पत्नी मूर्ति से विशेष स्नेह रखते थे। देवी मूर्ति से धर्मदेव के दो पुत्र नर एवं नारायण उत्पन्न हुए। नर और नारायण ने अपनी माता की अत्यंत सेवा भक्ति की। दोनों पुत्रों की सेवा भक्ति से प्रसन्न होकर माता ने उन्हें वर मांगने को कहा। नर व नारायण ने कहा माता हमें वरदान दीजिए कि हमारी रुचि सदैव तप में बनी रहे। दुखी मन से माता मूर्ति ने उन्हें तपस्या करने की आज्ञा दे दी। तब दोनों भाई नर व नारायण बद्रिका आश्रम में जाकर तपस्या करने लगे। (तभी से यह स्थान नर नारायण या नारायण आश्रम कहलाया।

यहां नर और नारायण नाम के दो पर्वत विद्यमान हैं। नारायण पर्वत पर भगवान बद्रीविशाल जी का भवन है तथा नर पर्वत पर आवासीय भवन है)। तपस्या को जा रहे पुत्रों को देखकर माता अत्यंत दुखी थी तथा उनकी आंखों में आंसू थे। माता ने दोनों पुत्रों से कहा निर्मोही मत बनना कभी कभी मुझे दर्शन देते रहना तब भगवान नारायण ने माता को धैर्य बंधाया और कहा हे माता में हर वर्ष भादों की द्वादशी को आपसे मिलने आऊंगा। यही कारण है कि प्रतिवर्ष भादों की द्वादशी को माता मूर्ति के मंदिर प्रांगण में मेले का आयोजन किया जाता है, रावल द्वारा पूजा-अर्चना की जाती है और इस दिन यहां भगवान नारायण स्वयं प्रकट होते हैं।

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