माँ भुवनेश्वरी चन्द्रबदनी

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जहाँ शिव हजारो वर्षो तक समाधिलीन रहेः-

शक्ति प्रसाद भट्ट

चन्द्रकूट पर्वत शिखर पर भगवती श्री चन्द्रबदनी का अभिर्भाव कैसे हुआ, इसका केदारखण्ड के 141 वें अध्याय में विशद् रूप से वर्णन मिलता है।

पद्मपुराणान्तर्गत केदारखण्ड के अनुसार सम्पूर्ण भारतवर्ष में जितने भी शक्तिपीठ है उनमें माँ दुर्गा का साक्षातवास है। ऐसा शास्त्रों में वर्णन है। देवी भागवत्, शिव पुराण, स्कन्द पुराण आदि ग्रन्थों में कथा है कि प्रजापति दक्ष ने कनखल हरिद्वार में एक यज्ञ महोत्सव किया किन्तु उस यज्ञ में शिव और माता सती की आमंत्रित नहीं किया। माता सती ने अनामंत्रित होकर शिवा का तिरस्कार करके उस यज्ञ में जाने की इच्छा प्रकट की। शिवजी के मना करने पर माता सती जी को भयानक क्रोध आ गया माता माता सती ने कालाग्नि के समान भंयकर रूप धारण कर शिव के सम्मुख प्रकट हो गई। स्वयं भगवान शंकर भी उस रूप को देखकर भयभीत होकर भागने लगे। सती ने उन्हें रोकने के लिए दसो दिशाओं में दस रूप बनाकर उनका मार्ग रोक दिया। शिव के सामने महाकाली, ऊर्ध्व में तारा, दाहिनी ओर छिन्नमस्ता, अग्निकोण में धूमावती, नैनद्वत्यकोण में त्रिपुर सुन्दरी, वामव्य कोण में मांतगी, ईशानकोण में षोडशी एवं दक्षिणभिमुख में भैरवी स्थित हो गयी और माता सती उस यज्ञ में चली गयी।माता सती ने जब देखा कि पिता के यज्ञ भाग में महादेव का कोई स्थान नहीं है तो उन्हें इतना क्रोध आया कि उन्होंने अपने नश्वर शरीर की आहुति यज्ञ में दे दी।

कार्य कारिणी सदस्य / पुजारीगण

भगवान शंकर को जब सती के भस्म होने की खबर मिली तो वे अपने गणों के साथ यज्ञ स्थल पर आये जहां सती का पार्थिव शरीर पड़ा था। महादेव ने माता सती के मृत शरीर को देखा तो उन्हें बहुत क्रोध आ गया और उन्होंने दक्ष का यज्ञ भंग कर दिया और दक्ष का सिर काट दिया। माता सती जी के पार्थिव शरीर को अपने कन्धे पर उठाकर महादेव हिमालय में कैलाश पर्वत पर आने लगे। संसार भयानक वनाग्नि से जलने लगा, भूचाल आने लगे, ब्रह्मण्ड दहल रहा था। तब सभी देवी, देवता, ऋषि, मुनि, भगवान विष्णु की शरण में गये। भगवान विष्णु ने सभी से भगवान शंकर के ध्यान में जाने को कहा और तक भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र को शंकर जी के पीछे लगा दिया। चक्र ने माता सती के पार्थिव शरीर के अंग काट दिये। जहां-जहां माता सती जी के अंग गिरे वहां-वहां शक्ति पीठों की स्थापना हुई। श्री चन्द्रकूट पर्वत पर माँ सती के शरीर को जो भाग गिरा वह नाभि के ऊपर व गले के नीचे वाला भाग अर्थात बदन गिरा, चन्द्रकूट पर्वत पर बदन गिरने से माँ का नाम चन्द्रबदनी पड़ा। स्कन्द पुराण में स्कन्द ऋषि ने नारद जी को चन्द्रकूट पर्वत पर रहने वाली देवी भुवनेश्वरी श्री चन्द्रबदनी का वर्णन सुनाया।

अन्त्र पूर्व महा रूद्रो, रू्रोद्र विरहातुरः।
देव्याः कलेवरात्सगै स्मृत्वा तन्मुख चन्द्रकम्।।

महादेव के कन्धे से जब मृत सती जी का बदन चन्द्रकूट पर्वत पर गिरा तो सती विरह में व्याकुल होकर महादेव रोने लगे और उक्त स्थान पर समाधि में बैठ गये। हजारो वर्षों तक समाधि में बैठ रहे। जब आकाशवाणी हुई कि महादेव समाधि से उठो। माता सती ने पार्वती रूप में गिरिराज हिमायल की पुत्री के रूप में मैना जी के गर्भ से जन्म लिया है। यह सुनकर शंकर कैलाश चले गये।

पार्वती बचपन से ही ध्यान प्रिय थी। पार्वती जब बड़ी हुई तो अपने माता-पिता को आज्ञा से इस चन्द्रकुट पर्वत पर महादेव को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए तपस्या में बैठ गयी। कई वर्षों तक माँ पार्वती ने चन्द्रकूट पर्वत पर तपस्या की। पुराणों में वर्णन है कि चन्द्रकूट पर्वत का आकार त्रिकोणमय है। इस पर्वत के चारों तरफ सात कुएं और चार तालाब है जिसमें से एक कुंआ दिखायी देता है बाकी सभी कुएं अदृश्य है किसी भाग्यशाली को ही इन कुआें के दर्शन होते हैं। इन कुंओ की गहराई गंगा के तल तक है ऐसे जनश्रुति है।

शक्ति प्रसाद भटट
उपाघ्यक्ष श्री चन्द्रबदनी मंदिर प्रबन्ध कार्यकारिणी ( कारवारी ) समिति
पुजार गाँव टिहरी
मो0 न0 9458930692

प्रबन्ध समिति पधाधिकारीगण /पुजारीगण

  1. शिव प्रसाद भटट्-मुख्यपुजारी
  2. शक्ति प्रसाद भटट्-उपाघ्यक्ष एवं पुजारी
  3. शिव प्रसाद भटट्- कोषाध्यक्ष /पुजारी
  4. सीता राम भटट्-सदस्य /पुजारी
  5. मोती प्रसाद भटट्-सदस्य /पुजारी
  6. ज्योति प्रसाद भटट्-सदस्य /पुजारी
  7. दिनेश प्रसाद भटट्-सदस्य /पुजारी
  8. दिनेश चन्द्र भटट – सदस्य /पुजारी
  9. प्रकाश चन्द्र भटट्-सदस्य /पुजारी
  10. पुर्वा चनद्र भटट्- सदस्य /पुजारी
  11. कीर्ति राम भटट्-सदस्य /पुजारी
  12. चण्डी प्रसाद भटट्-सदस्य /पुजारी
  13. हरीश प्रसाद भटट्- सदस्य /पुजारी
  14. हरीश चन्द्र भटट्-सदस्य /पुजारी
  15. सुनील भटट्- सदस्य /पुजारी
  16. भूपति प्रसाद भटट्- सदस्य /पुजारी
  17. दुर्गा प्रसाद भटट्- प्रबंधक
  18. इन्दु भूषण भटट्- सचिव
  19. दाताराम भटट्- अघ्यक्ष

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