*”कोरोना का बेजुबानों पर असर””लॉक डाउन से एक टिटहरी को क्या क्या परेशानियाँ झेलनी पड़ीं, पढ़िए सत्य घटना पर आधारित अंशुल डोभाल की कहानी, “वो बेवकूफ टिटहरी”*

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वो बेवकूफ टिटहरी !

परसों जब 10 दिन बाद कोविड-19 ड्यूटी से आया था, सेल्फ क्वारंटाइन होने, नहाने-धोने के बाद कपड़े सुखाने गैराज की छत पर गया तो तीखी कर्कश आवाज ने तंद्रा भंग कर दी,
टी-टि, टीssss, टी-टि !!!
अपनी चिर-परिचित टिटहरी ( Red Wattled Lapwing) पर नज़र गयी।
वो अभी भी अंडे सेंक रही थी !
अब तो काफी दिन हो गए !
2 मई को पहली बार उसके अंडे देखे थे, जमीन पर चार अंडे दिए थे, कंकड़-पत्थर के रंग के।घोंसले जैसी कोई चीज नहीं, बस कुछ कंकड़-पत्थर जमा कर दिए थे। ये सब उनकी सुरक्षा के लिए ही प्रकृति की व्यवस्था है, ताकि शत्रुओं का ध्यान आकृष्ट न हो। इतने दिन तो किसी भी पक्षी को हैचिंग में नहीं लगते ? और जिस दिन मैंने अंतिम बार ड्यूटी जाने से पहले देखा था, तो वहाँ सिर्फ़ एक अंडा बचा था। ये उसको अभी तक सेंक रही है ? अब तक तो वो अंडा निश्चित रूप से मर भी चुका होगा !
टिटहरी बेवकूफ लगी मुझे, क्योंकि उसने हमारे मकान के पीछे लगे हुए क्रिकेट अकैडमी के मैदान के बीचों-बीच अंडे दिए थे। लॉक डाउन में उसने एक-डेढ़ महीने से ग्राउंड बंद देखा, तो उसे लगा होगा कि जगह सेफ है, लेकिन वहाँ तो रोज शाम को हम और हमारे बच्चे एकाध घंटे के लिए जाते थे ! उसने जो भी सोचा हो, लेकिन इस तरह के पक्षी के लिए नई जगह घर बनाना आसान नहीं होता, दूसरों से संघर्ष करना होता है। उनके सजातीय बंधु, वे ही आपके घर को या अंडों-बच्चों को नष्ट कर डालेंगे। पहले यह मैदान गन्ने का खेत था, तो यह इसी दंपत्ति की संपत्ति रहा होगा। फिर इस पर मैदान बन जाने से खतरा भले ही बढ़ गया हो, लेकिन वो अपना घर छोड़कर कहीं जाय भी तो कहाँ ?
पिछले 10-12 सालों में गिने चुने खेत रह गए, बाकी तब्दील हो गए जंगलों में, कंक्रीट के बीहड़ों में।
हाँ, तो पहले दिन उसके अंडे 4 थे। फिर हमने बात को गोपनीय रखते हुए निर्णय किया कि अब बच्चों को उस मैदान में नहीं जाने देंगे, कहीं वह उन अंडों को नुकसान न पहुँचा डालें, या कई बार स्वयं अपनी जान के भय से पक्षी अंडे छोड़ कर भाग जाते हैं। बहाना यह बनाया गया कि उस मैदान में खेलने वाले लोग आ रहे हैं, अतः अब बच्चों का वहाँ जाना खतरे से खाली नहीं।सिर्फ अवनी और उसकी माँ को पता था, अवनी की माँ ने ही मुझे सबसे पहले बताया था। लेकिन अवनी ने भी पूरी ईमानदारी से गोपनीयता बनाये रखी। इस प्रकार हम कुछ दिन तक राज छुपाए रहे, लेकिन कितने दिन छुपता ?
एक दिन पूजा को भी पता चल गया, वो अरिजित को भी दिखा लाई।
मैं रोज टिटहरी को देखता रहता। जब छत पर कपड़े सुखाने जाता, तपती दुपहरी में वह अंडों पर बैठी होती, और उसकी सांस धौंकनी की तरह चल रही होती। हालांकि वो दोनों बारी-बारी से सेंकते थे, लेकिन ये एक कठोर तपस्या तो है ही, जो माता-पिता अपने बच्चों के लिए करते हैं।
कुछ दिनों बाद चुपके से जाकर देखा, तो सिर्फ दो अंडे बचे थे !
बड़ा दुख हुआ ! आस-पास इन्वेस्टीगेशन किया तो कहीं भी कोई सुबूत नहीं मिले। निश्चित रूप से कोई ऐसा प्राणी खा गया था, जो उसे पूरी तरह निगल गया था। कौवे जैसे प्राणी तो तोड़ के खाते हैं, अतः छिलके तो आस-पास होने ही चाहिए थे! तो वो साँप हो सकता था, या नेवला, या कुछ और ! या एक चील, जो हर वक्त मंडराती देखी जा सकती है, वे उसे शोर मचा कर उस पर आक्रमण कर उसे भगा तो देते हैं, लेकिन कभी तो उस चील को मौका लगा होगा, जिसकी गिद्ध दृष्टि से कुछ छुपाना संभव नहीं।
पूरी रात सन्नाटे को चीरती टिटहरी की कर्कश चीत्कार रह-रह कर गूँजती रहती थी। आखिर दिन की तुलना में रात को शिकारी कम नहीं होते।
टिटहरी मेरे लिए बचपन से ही उत्सुकता का विषय, रही। टिटहरी ही नहीं, सभी पशु-पक्षी। इनकी कुछ-कुछ भाषा थोड़ा ध्यान देने से समझ में आ जाती है। मनुष्यों के लिए इनकी भाषा में अलग ध्वनि होती है, जानवरों के लिए अलग। खतरे की चेतावनी, दुश्मन को डराने के लिए अलग और आपस की बातचीत के लिए अलग। बच्चों से बातचीत में मनुष्यों की तरह ही इनकी आवाज में एक सॉफ्टनेस या प्यार का पुट होता है, धीमी और मधुर। टिटहरी की भाषा भी मैना की ही तरह काफी विकसित होती है।
तो रात भर इनकी आवाजें इस बात का संकेत होती थीं, कि ये पूरी रात ड्यूटी पर हैं, संघर्षरत हैं। कई बार फील्ड बारिश से भरा, कई बार तीखी धूप हुई, लेकिन वे बारी-बारी से उन्हें सेंकते रहे, बिना थके, बिना रुके, अडिग। इस बीच वे खाना भी नगण्य खाते हैं। शरीर में संचित वसा से ही काम चलाते हैं। दोनों में से एक को हर वक्त वहीं पर रहना होता है।
एक महीने के लॉकडाउन के बाद लोग उसका खूब उल्लंघन करने लगे थे। मैदान में 3-4 लोग तो शुरू से ही खेलने आते-रहते थे, लेकिन वे मैदान के एक कोने को ही यूज़ करते थे, जिसमें नेट प्रैक्टिस की पिचें बनी हुई हैं। अंधेरा होने पर एक घुसपैठिया दीवार फांद कर आता और मैदान के 5-6 चक्कर दौड़ कर चला जाता। जब काफी लोग आने लगे, तो टिटहरी उन्हें धोखा नहीं दे सकती थी, निश्चित रूप से वो सभी की निगाहों का मरकज बन चुकी होगी। लोग सुबह 6 बजे से 12 बजे तक रहते, फिर धूप हल्की होते ही आ जाते, इस बीच टिटहरी दंपत्ति दूर खड़े उन्हें निहारते रहते।
फिर मुझे लगा, अब तक तो अंडे बेकार हो चुके होंगे। क्योंकि एक निश्चित तापमान लगातार न मिलने के कारण उसके अंदर जीव मर जाता है, और इन्हें तो 5-6 घंटे उन्हें छोड़ना पड़ रहा था।
खेलने वाले बच्चों ने उन्हें देखा होगा, छुवा भी होगा, उनके गायब होने के पीछे उनका हाथ होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता था, कोई आश्चर्य की बात नहीं यदि ले भी गए हों। शुरू-शुरू में तो मुझे बड़ी कोफ्त होती, कई बार पुलिस को फोन करने से स्वयं को मुश्किल से रोक पाया, क्या लॉकडाउन सभी के लिए नहीं था ?
ये अमीरजादे जो इस क्लब में 6-7 हज़ार महीने की फीस भरते हैं, खुले आम खेलते थे, और हमारे बच्चे घरों में कैद थे। खेलते हुए सामाजिक दूरी हो सकती है, लेकिन बॉल तो सभी पकड़ते हैं ! फिर इन्हें ही क्या कहना, हमारी सड़क पर भी तो सुबह शाम घूमने वालों की खूब भीड़ रहती थी। 7 से 1 बजे तक लॉक डाउन खुला था, लेकिन ये तो उससे कहीं पहले से, और शाम को 7-8 बजे तक घूमते रहते थे !
जब तक मैदान में खेलने वाले लोग नहीं आने लगे थे, तब तक हम उसे अपने मकान के बैक यार्ड की तरह यूज़ कर रहे थे। ये भी गलत ही था। इसलिए मन मसोस कर रह जाता।
खैर ! इतना सब कुछ उसके बारे में सोचते-सोचते फिर सोचता, कि हम भी कुछ नहीं कर सकते। ये उनकी नियति है, उनका भाग्य है, उनका जीवन संघर्ष है। वो अगर बचते हैं, तो वो उनका ‘सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ है, नहीं बचते तो फिर वो बचने के योग्य नहीं थे। और धरती से एक और प्रजाति विलुप्त हो जाएगी इसका अफसोस मनाने के अलावा क्या कर सकते हैं ?
हमने इस बार गौरैया के लिए दो घर बनाये, दोनों में आबादी आ गयी, लेकिन वो हम सिर्फ गौरैया के लिए कर सकते हैं, टिटहरी या किसी अन्य जंगली पक्षी के लिए नहीं !
कुछ दिन बाद मैंने देखा, वहाँ सिर्फ एक अंडा था !
घोर निराशा हुई !
वो अभी भी सेंक रहे थे उसे !
बेचारे !
फिर मैं 10 दिनों के लिए चला गया।
इस बीच उसका चैप्टर मेरे लिए क्लोज हो गया, अब किसे उसकी जान की चिंता थी ! अब तो अपनी जान सांसत में थी !
4 जून को घर लौटा, तो उस पर नज़र पड़ी। वो अभी भी छोप बैठी थी, यानी उस एक मात्र अंडे को सेंक रही थी ! वो चैप्टर फिर से खुल गया। यानी एक अंडा अभी भी वहाँ था !
मैदान में बच्चे खेल रहे थे, इसका मतलब उसके बारे में सब जानते थे ! तो इसका मतलब सभी उसके हितैषी थे ! तो फिर अंडे मनुष्य के अलावा किसी अन्य प्राणी ने गायब किये थे ! फिर तो किसी का कोई दोष नहीं, क्योंकि ये गायब करने वाला यदि उन्हें खा गया होगा, तो ‘सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ उसका भी तो होना है !
मैंने दिनों का हिसाब लगाना शुरू किया, शालिनी ने मुझे सबसे पहले 2 मई को टिटहरी के अंडे दिखाए थे। यानी उसने 2 से पहले किसी दिन अंडे दिए थे। यदि टिटहरी ने 1 या 2 मई को भी अंडे दिए हों, तो 4 तारीख तक तो एक महीने से भी कहीं ज्यादा हो गया था ! टिटहरी का हैचिंग पीरियड 28 दिन होता है, इस हिसाब से अब किसी भी सूरत में उस अंडे में जान नहीं बची होगी।
कल सुबह जब छत पर आया, तो उनके चिर परिचित स्वर ने ध्यान खींचा। बच्चे खेलने आ चुके थे, एक व्यक्ति वार्मिंग अप के लिए फील्ड का चक्कर लगा रहा था, और टिटहरी बल्कि टिटहरा कहिये, उसके पीछे-पीछे उड़ता हुआ उसे डरा कर दूर भगाने की कोशिश कर रहा था, ऐसा ये लोग अपने से शक्तिशाली दुश्मन, जिससे पार पाना इनके लिए मुमकिन नहीं, का ध्यान हटाने के लिए करते हैं। ताकि तब तक दूसरा पार्टनर बच्चों को लेकर दूर जा सके। वह आदमी जिसके पीछे टिटहरा, नहीं रुकिए, ये ‘टिटहरा’ शब्द अच्छा नहीं लग रहा, नर टिटहरी कहते हैं, पड़ा था, मुस्कुराते हुए उसे एन्जॉय कर रहा था, संकेत से उसे अपनी ओर बुला भी रहा था !
फिर टिटहरी कहाँ थी ?
मैंने मैदान के बीच उस जगह नजर डाली, जहाँ उसका घोंसला था, वो वहाँ नहीं थी, फिर कहाँ थी ?
तेजी से मेरी नज़रें मैदान के चारों ओर घूमीं, एक कोने पर आकर रुकीं, लेकिन यह क्या ?
ये कोने में कैसे छोप(अंडे सेंकना) बैठी है ?
इसका घोंसला तो मैदान के बीचों बीच में था !
यह कोने में क्या कर रही है ? टिटहरी तो अपना अंडा उठाकर ले जा नहीं सकती !
फिर यह कोने में किसको सेंक रही है ?
अचानक दिमाग में बिजली कौंधी !
अरे !
बच्चा भी तो हो सकता है ! लेकिन बच्चे को तो नहीं सेंका जाता ! हो सकता है, बल्कि है, बच्चा ही है, क्योंकिकुछ पक्षी बच्चे को अपने पंखों के नीचे छुपा लेते हैं खतरा आने पर।
अचानक से मन में एक खुशी की लहर दौड़ उठी !
इसका मतलब आखरी बचा हुआ अंडा सर्वाइव कर गया !
टिटहरी बच्चा हैच करने में कामयाब हो गई !
मैं बता नहीं सकता इस विचार से मन में कितनी प्रसन्नता हुई !
इतने दिनों की आशंकाएं जो मन में उमड़-घुमड़ रही थी अचानक से छंट गई ।
लेकिन तत्काल मन में एक नई इच्छा बलवती हो उठी, उस नवजात को देखने की !
मैं अंदर से फोन उठा कर लाया। कैमरा ऑन किया, बैठी हुई टिटहरी की ओर फोकस किया। बहुत लंबे इंतजार के बाद, काफी देर बाद टिटहरी के पंखों से एक छोटा सा सिर उभरा !
यह थे उस बहुप्रतीक्षित के प्रथम दर्शन !
कुछ-कुछ ऐसा ही लगा, जैसे किसी खास अपने के बच्चे को पहली बार देख रहे हों !
कुछ देर बाद बच्चा माँ की ममता के सुरक्षा आवरण से पूरा बाहर आया और मैदान में चुगने लगा। काफी देर तक मैं दोनों टिटहरियों और उनके बच्चे को निहारता रहा !
निश्चल !
निशब्द !
मन शांत था !
इतने दिनों के कोरोना ड्यूटी के मानसिक तनाव का कुहासा उस बच्चे की एक झलक से छंट गया था। मन में निराशा के विचारों का स्थान धीरे धीरे आशा लेने लगी थी !
बच्चा लगभग 15 दिन का तो है ही, जिस तरह से वो चल और चुग रहा है। अंडे से निकलने के बाद 30 से 38 दिन में टिटहरी के बच्चे उड़ जाते हैं। यानी, अगले 15-20 दिन बाद हमारा मेहमान चला जायेगा। फिर वो अपने लिए जीवन साथी ढूंढेगा, फिर कहीं कोई जमीन का टुकड़ा ! उस के लिए लड़ना होगा, नई जगह ढूँढनी होगी, क्योंकि ये जगह माँ-बाप की है, और इसके बाद वो प्रतिद्वंदी हो जाएंगे। फिर वो उस पर कंकड़-पत्थर का घोंसला बनाएंगे। और फिर शुरू होगी एक जीवन यात्रा !
अपने माता-पिता से निश्चित तौर पर उन्हें अधिक संघर्ष करना होगा। “सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट”, यही प्रकृति का नियम है।
जो सक्षम होगा, वही जिंदा रहेगा !
और उनके माता पिता एक बार और इसी मैदान में घोंसला बनाएंगे, मैं उन्हें पहचानता हूँ, वो देखने में सभी टिटहरियों के जैसे लगते हैं, लेकिन उनकी आवाज से, उनके बोलने की शैली से, उस आवाज की फ्रीक्वेंसी से !
वो फिर आएंगे !
फिर एक बार वही कहानी दोहरागी,
वो बेवकूफ टिटहरी !
—अंशुल कुमार डोभाल
© सर्वाधिकार सुरक्षित

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